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रात की बाँहों में

मोहन राकेश

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2811
आईएसबीएन :8183610498

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दस अलग-अलग शहरों पर केन्द्रित इन कहानियों पर नागरिक जीवन का एक बड़ा यथार्थ तो उभरकर आया ही है, नगरों की उन कठिनाइयों पर भी प्रकाश डाला गया है जो खास कर रात में ही पैदा होता है।

Rat ki bahon mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक खास योजना के तहत हिन्दी के दस प्रमुख कथाकारों द्वारा लिखी गई ये कहानियाँ भारती समाज के शहरी करण से पैदा होने वाले जलावों को रेखांकित करती हैं।

दस अलग-अलग शहरों पर केन्द्रित इन कहानियों पर नागरिक जीवन का एक बड़ा यथार्थ तो उभरकर आया ही है, नगरों की उन कठिनाइयों पर भी प्रकाश डाला गया है जो खास कर रात में ही पैदा होता है। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय समाज कौन-सा नया रूप ग्रहण कर रहा है, उसकी सांस्कृतिक चेतना की ओर अग्रसर हो रही है, व्यक्ति का संघर्ष क्यों सामाजिक संघर्ष का रूप नहीं ले रहा है आदि जैसे हमारे समय के कुछ अहम सवालों की ओर ही इशारा नहीं करती हैं ये कहानियाँ बल्कि, अपनी तरह से इनके जवाब भी तलाशती हैं।

 

पहले संस्करण से

विचार मेरे मित्र का था मोहन राकेश का-(और महज़ विचार को कापीराइट का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है) कि देश के प्रमुख शहरों की रातों की ज़िन्दगी पर देश के प्रमुख लेखक ऐसा कुछ लिखें कि जो न कहानी ही कहला सके और न रेखाचित्र ही। जो कुछ लिखा जाए उसमें कहानी-सी रोचकता रहे और रेखाचित्र-सी चुस्ती और यथार्थता। ‘रात की बाँहों में’ के अन्तर्गत हिन्दी और उर्दू के, प्रमुखतम कृतिकारों ने जो कुछ लिखा, वह अन्ततः बहुत लोकप्रिय सिद्ध हुआ और इसलिए अब यहाँ उसे पुस्तक-रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

प्रकाशक

 

दूसरे संस्करण के बारे में

ओमप्रकाश जी ने अपने मित्र मोहन राकेश की सलाह पर हिन्दी और उर्दू के प्रमुख रचनाकारों से देश के दस प्रमुख शहरों की रातों की जिन्दगी पर ‘कहानी-सी रोचकता और रेखांचित्र-सी चुस्ती और यथार्थता’ वाली ये रचनाएँ लिखवाकर प्रकाशित किया था, जो काफी लोकप्रिय सिद्ध हुईं। दशकों से यह किताब अनुपलब्ध है। लेकिन आज के सन्दर्भ में भी इन शहरों की रातों की जिन्दगी के सन्दर्भ में प्रासंगिक। नई पीढ़ी के अनेक पाठकों ने इसे पढ़ा भी नहीं होगा। इसलिए यह किताब एक बार पुनःप्रकाशित की जा रही है।

 

-अशोक कुमार महेश्वरी


बम्बई

बम्बई रात की काली मखमली बाँहों में लेटी हुई हँस रही थी।
आसमान से नीचे उतरते हुए हवाई जहाज की खिड़की में से ऐसा लगता था कि शहर की लाखों करोड़ों रोशनियाँ आँखें झपका रही हैं, दाँत दिखा रही हैं, खिलखिलाकर हँस रही हैं।
नीचे एयरपोर्ट पर एक बोइंग उतर रहा था, जो वक्त से दस मिनट पहले आ गया था (क्योंकि सिंगापुर से उसे अनुकूल दिशा में चलने वाली तेज हवा मिली थी)। इसलिए दिल्ली से आने वाले वाईकाउंट को नीचे उतरने की इजाजत नहीं मिली थी। सो अपने साठ मुसाफिरों को लिए हुए यह हवाई जहाज एक बार शहर के ऊपर पूरा चक्कर लगा रहा था। शायद तीसरी बार भी उसे चक्कर लगाना पड़े।

अर्जुन, अरोड़ा, जो ‘बम्बई टाइम्ज़’ के चीफ रिपोर्टर की हैसियत से दिल्ली से रिपब्लिक डे परेड की रिपोर्ट लेकर लौट रहा था, उसने बराबर बैठे हुए मुसाफ़िर को खिड़की में से बम्बई की रोशनियाँ दिखा रहा था। ‘‘वह देखो, समन्दर में नेवी के जहाज खड़े हैं, ‘गेट वे ऑफ़ इंडिया’ और ‘ताजमहल होटल’ के बिलकुल सामने यह है कुलाबा-दक्षिण में बम्बई का आखिरी किनारा। यह है ‘मेरीन ड्राइव’ हमारे शहर की सबसे खूबसूरत सड़क, जो मीलों समन्दर के किनारे-किनारे चली गई-और वह नीचे रोशनियों का जो झुरमुट नजर आ रहा है वह चौपाटी है। चौपाटी का ज़िक्र तो आपने ज़रूर सुना...’’

मगर उसने देखा कि उसके बराबर बैठा हुआ मुसाफ़िर न खिड़की में से रोशनियाँ देख रहा है, न शायद वह उसकी बात ही सुन रहा है। उसकी आँखें बन्द हैं और अपने हाथों से सीटवाली पेटी को वह कसकर पकड़े हुए है। अपने हर सफ़र में अर्जुन का अजीब और दिलचस्प आदमियों से वास्ता पड़ता रहता था। मगर ऐसा हम सफ़र उसे कभी न मिला था। अभी पालम से हवाई जहाज उड़ा भी नहीं था कि बूढ़े ने अपने कोट के अन्दर की जेब से हजा़र-हजा़र के नोटों का एक बंडल निकालकर अर्जुन को दिखाया और पूछा, ‘‘क्यों जी तीस हजार रुपए काफी होंगे न ? बात यह है कि मैं जिन्दगी में पहली बार बम्बई जा रहा हूँ। दिल्ली में दरीबे में सोने-चाँदी के जे़वरों की दुकान है। बम्बई जाने को सोचा तो कितना ही बार, मगर धन्धे से कभी फुरसत ही नहीं मिली-पिछले साल मैंने सारे तीर्थों की यात्रा तो कर ली, अब जी चाहता है कि मरने से पहले बस एक बार बम्बई देख लूँ। उम्र-भर मेरे बेटे-पोतों ने मेरी कमाई पर ऐश किए हैं जी ! मैंने सोच लिया है कि महीना-भर मैं भी बम्बई में जी भर ऐश करूँगा। उम्र-भर की कसर निकालूँगा। सुना है जी बम्बई में रात को बड़े-बड़े तमाशे होते हैं जी...’’ और उनके ख्याल से ही उसकी बूढ़ी बुझी- बुझी-सी आँखें चमक उठी थीं और उसके सूखे हुए पतले-पतले होंठों से राल टपकने लगी थी। मगर अब उसकी आँखें बन्द थीं और शायद मितली को रोकने के लिए उसने अपने सूखे-पतले होंठ कसकर बन्द कर रखे थे।

‘बेचारा बूढ़ा,’ अर्जुन ने सोचा। पहली बार हवाई जहाज़ में बैठा है न ! हवाई जहाज़ नीचे उतरता है तो पुराने अनुभवी मुसाफ़िरों को भी पेट में खिंचाव-सा महसूस होता है और मितली होने लगती है। ज़रूर इस बेचारे की हलात खराब है, तभी चेहरा भी पीला पड़ गया है।
अर्जुन तो दर्जनों बार हवाई सफ़र कर चुका था। उसको कभी मितली नहीं हुई थी। लेकिन उसके बराबर बैठे हुए मुसाफ़िर को कभी मितली होने लगे तो देखकर उसकी तबीयत भी खराब होने लगती थी। इसलिए उसने अपने हमसफ़र का पीला चेहरा देखते ही फौरन खिड़की की तरफ़ मुँह मोड़ लिया और नीचे शहर की रोशनियाँ देखने लगा। घूमते हुए हवाई जहाज में से उसे ऐसा लगा कि वह खुद तो आकाश में लटका हुआ है और बिलकुल निश्चल है, मगर दूर कहीं नीचे रोशनियों से जगमगाता हुआ शहर घूम रहा है...घूम रहा है।

‘रात !’ अर्जुन ने घूमते हुए, शहर की रोशनियों को पहचानने की कोशिश करते हुए सोचा, रात एक हसीन जादूगरनी है। हर शाम वह शहर को अपनी बाँहों में समेट लेती है और उस पर अपना सितारों ढका कामदानी का काला दुपट्टा डाल देती है और फिर सुबह होने तक शहर की सारी कुरूपता शहर के शरीर पर झूलते हुए मैले, बदबूदार चीथड़े शहर के हाथ-पाँव और चेहरे पर खून और पीप से रिसते हुए ज़ख्म और नासूर वे सब इस जादू के दुपट्टे से ढके रहते हैं। हर बुराई, हर बदसूरती, हर बेइन्साफी, हर जुल्म पर अँधेरे का परदा पड़ा रहता है। और रात की तिलिस्मी बाँहों में सिमटकर शहर के चेहरे पर निखार आ जाता है; शहर सुन्दर जवान और स्वस्थ हो जाता है; रोशनी के लाखों दाँतों की नुमायश करने के लिए खिलखिलाकर हँस पड़ता है। मगर फिर सुबह होती है। एक-एक करके रोशनियाँ बुझती जाती हैं, जैसे किसी के चेहरे से खिसियानी हँसी के आसार आहिस्ता-आहिस्ता मिट जाते हैं-और फिर सूरज अपना आग्नेय हाथ बढ़ाता है और एक ही बार में उस तिलिस्मी चादर को नोच लेता है और शहर को रात की नरम बाँहों में से घसीटकर वास्तविकता के क्रूर उजाले में नंगा ला खड़ा कर देता है...’

मगर अर्जुन ने सोचा, अभी सवेरा होने में देर है। इस वक्त रात का पहला पहर है और रात को बम्बई से ज्यादा सुन्दर शहर दुनिया में कोई नहीं है। ऐसा लगता है जैसे काली मखमल पर हीरे जवाहरात बिखरे पड़े हों। मगर नहीं, यह सब तो कविता है।’ उसने फिर सोचा, ‘यह नीचे फैली हुई काली मखमल नहीं है। अँधेरा समन्दर है और ये हीरे जवाहरात नहीं हैं। ये सड़कों, घरों और दुकानों होटलों और थिएटरों क्लबों और नाचघरों, कारखानों और फैक्टरियों, चालों और झोंपड़ियों की रोशनियाँ हैं। नियॉन लाइट में लिखे हुए मोटर और बिस्कुटों, कपड़े की मिलों और साबुन की टिक्कियों और नाच-गानों से भरपूर फिल्मों के लाल, नीले, पीले रंगों के इश्तहार हैं।’

देश के बँटवारे के बाद से उसने पन्द्रह बरस इस शहर में गुजारे थे। और बम्बई की रात से वह इस तरह परिचित था, जैसे मरद अपनी औरत के शरीर की बोटी-बोटी से परिचित होता है। यह बिखरी हुई रोशनियों का जाल, जो नीचे घूम रहा था, उसमें से हर रोशनी उसकी जानी-पहचानी थी। बरसों तक हर रात को वह अखबार के दफ्तर से नाइट ड्यूटी करके इन रोशनियों की छाँव में फ्लोरा फाउंटेन से भायखला पैदल गया था। अपने पहले इश्क में पहली नाकामी के बाद महीनों उसने मैरीन ड्राइव का पथरीला फुटपाथ नापा था और उस पर लगी हुई सड़क की रोशनियाँ गिनी थीं। और जब उषा से उसकी नई-नई मुहब्बत हुई थी, तो कितनी ही बार वे दोनों रात को चौपाटी पर गए थे और वहाँ चाट की दुकानों पर लगे हुए गैस के हंडों की पीली रोशनी में उन्होंने दही-बड़े और गोल-गप्पे खाए थे और फिर फलूदा पीकर बनारसी पानवाले की दुकान से महोबे के खुशबूदार पान बनवाए थे। और फिर उन पानों को चबाते हँसते-बोलते बालकेश्वर रोड पर लगी हुई बत्तियों को गिनते हुए मालाबार हिल की चोटी तक गए थे, ताकि सड़कों की भीड़-भाड़ और शोर-शराबे से बहुत दूर और बहुत ऊपर हैंगिंग गार्डन के सामने पड़ी हुई किसी बैंच पर बैठकर एक-दूसरे के दिल की धड़कनें सुन सकें।


 

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